Monday, June 8, 2009

हबीब तनवीर का स्वाँग

हबीब तनवीर हमारे बीच नहीं रहे, यह घटना पूरे कला जगत के लिये पीड़ादायक है। उनका रंगकर्म गहरे अर्थों में साधारणजनों की महिमा को प्रकट करने वाला था। वे अपने नाटकों के माध्यम से हमारा ध्यान बार-बार इस ओर आकर्षित करते रहे कि भारत के आमजन किस तरह अपने जीवन में दु:ख झेलते हुये सच्चाइयों का सामना करते हैं। हबीब तनवीर का चरनदास चोर नाटक हमें सत्य पर सोचने को विवश करता है और यह भरोसा जताता है कि एक चोर भी सत्य पर अडिग रहकर अपना रंग जमा सकता है- 'एक चोर ने रंग जमाया, सच बोलके, संसार में नाम कमाया सच बोलके।' यह चरनदास चोर नाटक का ही गीत है। दूसरी बात जो उनके नाटकों से हमेशा उभरती रही वह है नश्वरता के बोध को जगाना। छत्तीसगढ़ की सतनामी परंपरा में एक गीत बहुत ही लोकप्रिय है- 'माटी के काया, माटी के चोला, कै दिन रहिबे बतादे मोला।' यह गीत भी उनके नाटकों में सदा गूंजता रहा है।

यूं तो हबीब तनवीर हमारे देश में वामपंथी विचारधारा से जुड़े हुये माने जाते रहे हैं। उनके समय-समय पर दिये गये वक्तव्यों और अन्य सार्वजनिक गतिविधियों के आधार पर कुछ कुटिलमति लोगों ने उन पर व्यर्थ ही दोषारोपण किये हैं और कई बार तो हबीब तनवीर मतान्ध कट्टरतावादियों के अतिचार का शिकार भी होते रहे हैं, पर मुझे हबीब तनवीर के तमाम नाटक देखने के बाद और उनके जीवन नाटक के इस अंत पर सोचते हुये यही लग रहा है कि वे गांधी मार्ग के रंगकर्मी थे। जैसा कि मैंने शुरू में कहा कि उन्हें साधारणजनों की महिमा का गुणगान करने में बहुत आनंद आता था। याद आता है उनका नाटक आगरा बाजार, जो नजीर अकबरावादी की यादों से जुड़ा है और उस नाटक में कविता और साधारण जीवन के जीवन्त संबंधों को हबीब तनवीर ने मंच पर उतारा है।

यह सर्वविदित है कि हबीब तनवीर नाटय निर्देशक के अलावा लेखक, पत्रकार, अभिनेता और रंग संगीत के विशेषज्ञ थे। संभवत: उन्होंने अपने जीवन में लगभग पचास से अधिक नाटकों को तैयार किया। इन नाटकों में संस्कृत और अंग्रेजी के नाटक भी शामिल रहे हैं जिन्हें हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ी बोली और उसकी करुणा में पिरो दिया है। एक तरफ विजयदान देथा की कहानी चरनदास चोर का आधार बनी, तो दूसरी तरफ शेक्सपियर के मिडसमर नाइट्स ड्रीम नाटक से हबीब तनवीर ने कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना जैसा नाटक छत्तीसगढ़ी बोली में बुना। शूद्रक के मृच्छकटिकम् नाटक से छत्तीसगढ़ी बोली में मिट्टी की गाड़ी नाटक जब मंच पर अवतरित हुआ तो उसमें राजा के साले के रूप में हबीब तनवीर ही भूमिका निभा रहे थे। इस नाटक में वैसी भूमिका अभी तक कोई नहीं निभा पाया है। उनका वह रोल हमारी स्मृतियों पर अमिट है।

यह संयोग है कि जब हबीब तनवीर हमसे बिछुड़ गये हैं उसी समय उनके द्वारा स्थापित किये गये नया थियेटर के पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं। उनसे मेरी आखिरी मुलाकात चार मई, 2009 को हुई थी। वे कथाकार कृष्ण बल्देव वैद के नाटय पाठ को सुनने हमारे आग्रह पर एक गोष्ठी में आये थे। कहने लगे कि नया थियेटर के पचास साल पूरे हो रहे हैं, तो मैंने कहा कि नया थियेटर की अर्धशती हमें खूब धूमधाम से भोपाल में ही मनानी चाहिये। मैंने यह भी सुझाव रखा कि शुरू से लेकर अब तक नया थियेटर के इतिहास और उसके कार्यकलाप पर एक विशद् मोनोग्राफ का प्रकाशन भी होना चाहिये। इसी के साथ नया थियेटर के रंग संगीत और उसकी कार्यशैलियों पर विचार-विमर्श भी रखा जाना चाहिये।
हबीब जी ने अत्यंत रोमांचित भाव से मुझे आश्वासन दिया कि हम जल्दी ही मिल रहे हैं और नया थियेटर की अर्धशती मनाने के कार्यक्रम को हम सब मिलकर अंतिम रूप देंगे। पर यह हमारा दुर्भाग्य है कि हबीब जी अब हमें कभी नहीं मिलेंगे। मैं आशा करता हूं कि उनकी अनुपस्थिति में ही सही देश भर के उनके हितैषी और रंगकर्मी मित्र मिलकर नया थियेटर की अर्धशती के बहाने हबीब तनवीर को फिर याद कर सकेंगे। हबीब तनवीर ने लोक, शास्त्र और आधुनिक दृष्टि को मिलाकर जो बोली का रंगमंच रचा है वह विश्व में दुर्लभ है।

Friday, May 29, 2009

कहीं पहाड़ के पीछे तो कहीं पानी में,
कहीं दिन डूबता आकाश की पेशानी में

गाँव से दूर तलहटी में शाम घिरती है,
जैसे दिन डूब रहा हो किसी वीरानी में

आज फिर जा रही ये रौशनी थामें कैसे,
कोई परछाईं भी बचती नहीं निशानी में

तुम कहाँ मुझे में छिपो और मैं कहाँ तुम में,
दिन गया, रात हुई ही इसी हैरानी में

हरेक शाम ही ध्रुव इस तरह से ढलती है
जैसे अब रौशनी रह जाएगी कहानी में

Friday, May 22, 2009

रोटी की तरह भी दिखता है चाँद

चाँद के बारे में बहुत-सी कल्पनाएँ की जाती रही हैं- पहली तो यही कि वह दुनिया भर के बच्चों का मामा है। बच्चे अक्सर रार मचाकर माताओं से चन्द्रखिलौना माँगा करते हैं। माताएँ थाली में पानी भरकर उन्हें चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब दिखाया करती हैं और जब वह उनकी पकड़ में नहीं आता तो वे रोने लगते हैं।

दार्शनिक कहते हैं कि चाँद तो धरती माता के मन की तरह है। वह ठीक हमारे मन की तरह पकड़ में नहीं आता। उसकी रोशनी चुपके-से धरती पर उगने वाली वनस्पतियों में रस का संचार किया करती हैं। हम अपने घरों की छतों पर शरदपूर्णिमा की रात में खीर, दूध और गन्ने रख दिया करते हैं और यह आशा करते हैं कि चाँद इन वस्तुओं में भी अपना अमृत उँडेल देगा।

जिसकी जैसी भावना होती है चाँद उसे वैसा ही दिखायी देता है- चन्द्रमा के चेहरे पर दीखती श्याम आकृति के बारे में खगोलशास्त्री कहते हैं कि उस पर काले पहाड़ हैं जो हमें इतनी दूर धरती पर खड़े होकर भी दिखायी देते रहते हैं। सौंदर्य प्रेमी कहते हैं कि जब कामदेव की पत्नी रति का मुख बनाने के लिए सौंदर्य सामग्री जरूरत पड़ी तो चन्द्रमा से कुछ भाग निकाल लिया गया। इसी कारण उसमें गङ्ढा हो गया जो धरती से एक ऍंधेरे छेद की तरह दिखायी देता है। भक्तजन मानते हैं कि भगवान का रंग ही साँवला है और कल्पना करते हैं कि भक्तों की तरह चाँद भी भगवान को अपने हृदय में बसाये हुए हैं। इस कारण उस पर भगवान के साँवलेपन की छाया है।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में जब महात्मा गाँधी ने चरखे को आन्दोलन का रूप दिया तब भारत के लोग कल्पना करने लगे कि चाँद पर बैठकर कोई बुढ़िया चरखे पर सूत कात रही है। गांधी जी स्वयं कहते थे कि गरीब आदमी के लिए जो आर्थिक परिस्थिति है उसी से उसका आध्यात्मिक मन बनता है। अभावग्रस्त आगमी भौतिक अभावों की बोली ही बोलता है और उसे अपनी इसी भावना के अनुरूप जीवन सत्य के दर्शन होते हैं। गरीब आदमी के जीवन को समृध्द समाज द्वारा अपने लिए परिकल्पित किसी सुखद अहसास में नहीं धकेला जा सकता।

चन्द्रयात्रियों ने जब अन्तरिक्ष से धरती को देखा तो उन्हें वह थाली की तरह गोल दिखी। धरती हम सबकी कल्पना में थाली की तरह ही आती है क्योंकि वह हमें प्रतिदिन परोसती है। सबकी माता होने के कारण पालती-पोसती है। तरक्की पसन्द कवि-शाइर तो अपनी कविताओं और शाइरी में कहा ही करते हैं कि गरीब आदमी को पूरा चाँद रोटी की तरह दिखायी देता है।

यदि समाज हम कल्पना करें कि धरती पर पाँव फैलाते लकदक बहुराष्ट्रीय बाजारों के प्रांगण में चमकते पूरे चाँद पर जो छाया दिखायी देती है वह उन गरीब लोगों की परछाईयों की तरह है जो बाजारों और सिमटी हुई गलियों के दबे-छिपे कोनों में अपनी छोटी-सी ढिबरी जलाए आज भी कुछ केना-कबार बेचकर अपने परिवार का गुजारा चलाया करते हैं।

हम कल्पना करें कि चाँद के चेहरे पर पड़ी यह छाया उन गरीब औरतों की भी है जो दिन-रात अगरबत्ती भाँजकर हमारे घरों को खुशबुओं से भरती हैं । वे रोज हमारे लिए अरबों पापड़ बेल रही हैं। चाँद पर पड़ी हुई यह छाया उन लाखों हथकरघा बुनकरों की परछाईयों की भी है जो दिन-रात हमारे लिए कपड़ा बुनते रहते हैं। चाँद पर पड़ी यह छाया उन ताँबई देहवाली वनवासी स्त्रियों की भी है जिनका पूरा जीवन जंगलों में लकड़ियों बटोरते और महुआ बीनते बीतता है। यह छाया बड़े सबेरे घर से निकल पड़े और देर रात काम से लौट रहे उन मजदूरों की थकान की है जो जीवन भर नहीं मिटती। यह छाया धरती के उस छोटे-से टुकड़े की भी है जिसे उपजाऊ बनाए रखने के लिए एक किसान पूरा जीवन लगा देता है। भारत के आकाश में उगे चाँद पर सदियों से अभावग्रस्त जीवन की छाया पड़ रही है।

Thursday, May 21, 2009

सुमिरन

दुख में सुमिरन
सुख में सुमिरन
करने वाले बदल गये
कारण सुख के बदल गये
कारण दुख के बदल गये

मन की संसद
मन की सत्ता
संविधान को करे निहत्था
मन का चोर पकड़ने वाली
पुलिस कहाँ से आये
हमने अवगुन के गुन गाये.

Wednesday, May 20, 2009

ढाई अक्षर

जन्म मिला ढाई अक्षर का
धर्म मिला ढाई अक्षर का
कर्म किया ढाई अक्षर का
मर्म मिला ढाई अक्षर का
प्रेम किया ढाई अक्षर का
जन्म गँवाया
प्रेम न पाया
सत्य मिला ढाई अक्षर का.

Tuesday, May 19, 2009

उसी शहर में

उसी शहर में नाल गड़ी है मेरी
उसी शहर में दाल पकी है मेरी
उसी शहर में रहते मेरे दोस्त
उसी शहर में बीबी-बच्चे
उसी शहर में खाल खिंची है मेरी

उसी शहर में बहुत दिनों तक
रहने से दुख होता है
उसी शहर में बहुत दिनों के बाद
लौट आने से सुख होता है.